पटना डेस्क: कुछ महिलाएं समाज की पारंपरिक सोच को पीछे छोड़कर ऐसे काम कर रही हैं, जिन्हें आमतौर पर पुरुषों का कार्य माना जाता है। इन महिलाओं ने अपने परिवार की जिम्मेदारी को प्राथमिकता देते हुए समाज के बनाए नियमों की परवाह नहीं की। ऐसी ही एक प्रेरणादायक महिला हैं रेखा सिंह, जो श्मशान घाट पर शवों का अंतिम संस्कार करती हैं।

मुक्तिधाम में 20 वर्षों से कर रही हैं अंतिम संस्कार

रेखा सिंह पिछले 20 वर्षों से बिलासपुर के दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे मुक्तिधाम में चिताओं को अग्नि देने का कार्य कर रही हैं। अरपा नदी के किनारे स्थित तोरवा श्मशान घाट में रेखा प्रतिदिन 6 से 7 शवों का अंतिम संस्कार करती हैं। हिंदू परंपराओं के अनुसार, महिलाओं का श्मशान घाट जाना वर्जित माना जाता है, लेकिन रेखा ने इस मान्यता को दरकिनार कर इस पेशे को अपनाया।

पति की मृत्यु के बाद संभाली परिवार की जिम्मेदारी

रेखा बताती हैं कि यह काम उनके परिवार की चार पीढ़ियों से चला आ रहा है। उनके दादा ससुर पहले इस कार्य को करते थे, फिर उनके ससुर हुकुम सिंह ने इसे आगे बढ़ाया। जब उनके पति कल्लू सिंह ने इस पेशे को अपनाया, तब रेखा घरों में काम कर परिवार चलाती थीं। लेकिन कुछ वर्षों बाद ही पति की असमय मृत्यु हो गई, जिससे पूरे परिवार की जिम्मेदारी रेखा के कंधों पर आ गई।

छुआछूत के कारण लोगों ने किया अलग-थलग

शुरुआत में रेखा घरों में काम करने के साथ-साथ मुक्तिधाम में आने वालों की सहायता भी कर देती थीं। लेकिन जब समाज को इस बारे में पता चला, तो लोगों ने छुआछूत का हवाला देकर उनसे काम लेना बंद कर दिया। इसके बाद उन्होंने पूरी तरह श्मशान घाट का कार्य संभाल लिया और इसे अपनी आजीविका का साधन बना लिया।

रेखा बनीं समाज के लिए प्रेरणा

सामाजिक और धार्मिक मामलों के जानकार प्रपन्य मिश्रा कहते हैं,”रेखा समाज के लिए प्रेरणास्रोत हैं। कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। उन्होंने अपने परिवार की जिम्मेदारी को निभाने के लिए जो रास्ता चुना, उसमें कोई बुराई नहीं है।

“वार्ड पार्षद मोतीलाल गंगवानी ने कहा,”पति की मृत्यु के बाद उन्होंने पूरे परिवार को संभाला। उनका बेटा भी इस कार्य में उनकी मदद करता है। अंतिम संस्कार कराने वाले लोग अपनी तरफ से कुछ राशि देकर सहयोग करते हैं, जिससे उनका गुजारा चलता है। ऐसी महिलाओं को महिला दिवस पर सलाम है।”

कोरोना महामारी के दौरान बनीं मिसाल

रेखा सिंह ने कोरोना महामारी के कठिन समय में जब लोग अपनों के शवों को छूने से भी डर रहे थे, तब हर रोज 40 से 50 शवों का अंतिम संस्कार किया। समाज में जहां महिलाओं का श्मशान घाट पर काम करना सामान्य रूप से नहीं देखा जाता, वहीं रेखा ने अपने पारिवारिक कार्य को अपना जीवनयापन का साधन बना लिया और अपने बच्चों व परिवार का पालन-पोषण कर रही हैं।

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